ओम गणपतये नमः
मायानगरी :–
इंजीनियरिंग कैम्पस के खचाखच भरे कॉरिडोर में विद्यार्थी अपनी अपनी क्लास रूम का नम्बर देखने या फिर फीस अमाउंट का पता लगाने लाइन में लगे थे।
कुछ बाहर गार्डन में इधर उधर घूमते अपने कॉलेज को आंखों ही आंखों में आंकने की कोशिश में थे…..
कुछ लड़के एक ओर जमा इधर उधर की बातों में लगे थे कि एक लड़की भागती सी उनके पास चली आयी।
आते ही उसने एक लड़के को पीछे से कंधो से पकड़ अपनी ओर घुमाया और फटाफट बोलना शुरू कर दिया…
” कहाँ थे अब तक। तुम्हें पता है कितनी देर से तुम्हें ढूंढ रही थी मैं ? “
लड़का उस अनजानी लड़की को अपनी बड़ी बड़ी आंखें फैला कर देख सोचने लगा। दूर दूर तक दिमाग के घोड़े दौड़े लेकिन खाली हाथ वापस चले आये…
” आप जानती हैं मुझे? “
इस सवाल को पूछते ही लड़के के चेहरे पर एक लंबी सी मुस्कान छा गयी..
लड़की तो पहले ही मुस्कुरा रही थी…
” हाँ फिर? मेरे दिल ने तुम्हारी रूह को पहचाना है। हम जन्म जन्म से एक हैं। “
“अच्छा ! और कुछ बोलिए ना। अच्छा लग रहा है एक सुंदर लड़की का मुझे लाइन मारना । ”
” ये रूहानी मुहब्बत है पागल? बोलो क्या तुम मुझसे शादी करोगे ? क्योंकि मैं तुमसे शादी करना चाहती हूँ। “
” हाँ करूँगा ! ज़रूर करूँगा !हर जन्म में करूँगा । बार बार करूँगा। अब तो तुम मना भी कर दो तब भी करूँगा। ”
वो शायद और भी कुछ कहता रहता , लेकिन तब तक वो लड़की अपने दुपट्टे को संभालती वहाँ से वापस निकल गयी…..
और लड़का अपने बालों पे हाथ फिराता उसके कदमों के निशान देखता रह गया….
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ये हैं कहानी के नायक अभिमन्यु मिश्र ! मध्यम वर्गीय परिवार के सबसे बड़े लड़के। जिनके कंधो पर जन्म के साथ ही ढेरों ज़िम्मेदारियों का बोझ आ जाता है,कुछ उसी तरह के।।
लेकिन अपने बेलौस और बेपरवाह स्वभाव के कारण ये किसी बात को बहुत ज्यादा दिल से नही लगाते।
इंजीनियरिंग भी इन्होंने तुक्के में ही जॉइन कर डाली। गणित कुछ ज्यादा ही अच्छी थी,आसपड़ोस के लोगों ने आर्यभट्ट बुलाना शुरू कर दिया। और बस आर्यभट्ट जी ने खुद को नवाजे इस नाम को इतना सीरियसली लिया कि ग्यारहवीं में गणित ले बैठे।
पढ़ाई लिखाई में दीदे लगते न थे। स्कूल के शुरुवाती दो महीने स्कूल से चोरी छिपे भाग कर फिल्में देखने में या स्कूल के पीछे की तलैया में दोस्तों के साथ बैठ सिगरेट फूंकने में निकाल दिए।
तीसरे महीने फर्स्ट टर्म्स के इम्तिहान होने पर नानी दादी सब एक साथ याद आ गयी।
रिजल्ट्स बुरे नही बेहद बुरे आये। नतीजा ये हुआ कि मार्कशीट घर पर पिता जी को दिखाने से उतारी जाने वाली चप्पलों की आरती से बचने का एकमात्र उपाय यही दिखा की आर्यभट्ट जी ने अपने पिता के नकली साइन मारे और परीक्षाफल जमा कर दिया।
अब ये छोटी मोटी सी गलती कोई पाप तो है नही की जिसके लिए नरक की अग्नि में जलाने की सज़ा दी जाए। लेकिन यही समझ जाती तो प्रिंसिपल इंसानियत के दायरे में न आ जाती।
पर उसे तो खून पीने वाली चुड़ैल का ही टाइटल भाता है। आर्यभट्ट बाबू के पिता श्री अनिल मिश्र जी के साईन होने के बाद भी धड़धड़ा के मिश्र जी के ऑफिस के लैंडलाइन पर फ़ोन दे मारा और उन्हें उनके लख्ते जिगर का कांड कह सुनाया वो भी सारी लगाई बुझाई के साथ।
अब जब छौंक ही मिर्ची हींग की लगी हो तो स्वाद मीठा कैसे आये?
उस रात घर के बड़े राजकुमार की जबरदस्त पिटाई हुई। एक मिडल क्लास बाप अमूमन जो जुमले सुनाता है वो सब मिसिर जी ने कह सुनाए…
और उस रात स्वाभिमानी बेटा बिना कुछ खाये ही सो गया। अगले दिन उठते ही उसने एक कसम ले ली कि अब इस साल चाहे विषय कठिन से कठिनतम हो जाये पढ़ कर ही पास होना है।
इस बार न तो फर्रे बनाये जाएंगे और न ही स्कूल बाथरूम की दीवारों को रंगा जायेगा।
अभिमन्यु का अभिमान जागा था आखिर!
ग्यारहवीं वो अच्छे नंबरों से पास हो गया। अब क्लास के होशियार लड़कों से ज़रा सी दोस्ती बढ़ी और दोस्ती के साथ बढ़ता गया छिटपुट ज्ञान।
बारहवीं के लड़कों के जिस ग्रुप में अभिमन्यु शामिल हुए वहाँ आये दिन एन आई टी , आई आई टी , आर आई टी के चर्चे होने लगे। और फिर अभिमन्यु को दिखा अपनी आजादी का पहला रास्ता।
पहले तो उसने कभी अपनी आगे की पढ़ाई को लेकर कुछ सोचा ही नही था।
लेकिन अब उसे अंधियारे में एक हल्की सी रोशनी दिखने लगी थी।
उसके सारे दोस्त इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे थे। उन लोगों के मुताबिक अच्छे सारे कॉलेज उनके शहर से दूर थे और बस यही तो उसे चाहिए था। अपने शहर से दूर , अपने घर से दूर कोई ठिकाना जहाँ वो पढ़े न पढ़े पर सुकुन से रह तो सकें।
यहाँ घर में तो उसका जीवन कतई अस्थिर हो रखा था। पिता जी की प्रोमोशन पेंडिंग है अभी को मार लो, किसी से कहा सुनी हो गयी अभी को मार लो। मतलब अभी उनका बेटा न हुआ डस्टर हो गया जब तब हाथ साफ कर लो।
माँ अक्सर उसके पक्ष में बोलती ” जवान लड़का है उस पर हाथ न छोड़ा करें । किसी दिन गुस्से में घर छोड़ गया तो? ”
पर मिसिर जी हर बार कोई ऐसी कैफियत दे जाते की उन दोनों का झगड़ा बढ़ता चला जाता और अभिमन्यु चुपचाप घर से निकल सड़क पर चला आता।
वो भी अपने परिवार की समस्या को समझता था। कमाने वाला एक और खाने वाले पांच। घर चलाना भी तो मुश्किल था। उसके पीछे उसके एक भाई और जो था। उसके बाद वाला उससे डेढ़ साल ही छोटा था।
मतलब उसकी कॉलेज की पढ़ाई तक ये भी तैयार हो जाना था।
उसे इतना तो समझ आ ही गया था कि ज़िन्दगी की खींच तान में थोड़ा आगे बढ़ना है, तो उसे इंजीनियरिंग में प्रवेश लेना ही पड़ेगा।
और बस उसने तैयारी शुरू कर दी थी। उसकी तैयारी और उसके गणित का ज्ञान देख उसके एक करीबी दोस्त ने उसे आई आई टी और बाकी बड़े महाविद्यालयों के फार्म भी भरने की सलाह दी थी। लेकिन महंगे फॉर्म्स के साथ ही महंगे कॉलेज की फीस सुन उसकी घर पर बात करने की हिम्मत ही नही हुई ।
बारहवीं के साथ ही उसने इंजीनियरिंग का इम्तिहान दे दिया और जिसमें उसका चयन भी हो गया ।
काउंसिलिंग के बारे में घर पर उसने डरते डरते ही बताया था…
क्योंकि अब तक फार्म भरने से लेकर इम्तिहान देने तक का काम उसने अपने पिता हिटलर मिश्रा जी से छिप कर अपने छोटे मामा की सहायता से ही किया था।
अभिमन्यु का डर सही साबित हुआ। आज तक पापा किसी बात से खुश या संतुष्ट हुए थे जो आज होते? जहाँ उसके दोस्तों के पिता बेटों के सेलेक्शन पर मिठाई बाँट रहे थे अभि के पिता का अलग ही राग चल रहा था।
” क्या ज़रूरत थी इंजीनियरिंग की? चार साल बर्बाद करने के बाद जाने कब नौकरी मिले? आजकल इंजिनिंयर्स ढेरों हो गए हैं, सरकारी नौकरियों के लाले पड़े हैं। इससे अच्छा तो तीन साल की ग्रेड्यूएशन की डिग्री लेकर पी सी एस कर लेना था। “
पिता जी की नाराजगी इस बार अभि के समझ से बाहर थी।
काउंसिलिंग के दौरान वो कॉलेज चुन पाता इसके पहले ही कॉलेज ने उसे चुन लिया था।
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मायानगरी विश्वविद्यालय ने खुलने के साथ ही अपने कैम्पस में हर एक डिग्री के कॉलेज की स्थापना कर रखी थी। इसके साथ ही सभी कॉलेज में विद्यार्थियों के लिए भी फ्री सेलेक्शन, स्कॉलरशिप के साथ ही मैनेजमेंट कोटा भी रख छोड़ा था।
कुछ बच्चे अपने दम पर सेलेक्ट होकर आते थे तो कुछ मैनेजमेंट सीट से। उनके अलावा यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर्स की टीम अलग अलग जगह की काउंसिलिंग में घूम कर कुछ विशेष होशियार बच्चों को छात्रवृत्ति देकर भी अपने विश्वविद्यालय का हिस्सा इसीलिए बना रही थी कि विश्वविद्यालय का नाम हो सके।
विश्विद्यालय की मेहनत का नतीजा था कि ” मायानगरी ” अपने खुलने के पांच ही सालों में पढ़ने और पढ़ाने वालों के बीच अपना अच्छा नाम बना चुकी थी।
अभिमन्यु को यहाँ चुन कर लाया गया था। और ये विश्विद्यालय खुलने के तीसरे साल से यहाँ मैकेनिकल इंजीनियरिंग पढ़ रहे हैं।
अभी इनका पांचवा सेमेस्टर चल रहा है। और अब ये वापस अपने पुराने रंग में आ चुके हैं।
वही बेफिक्री वहीं बेपरवाही का आलम है । न इन्हें किताबो से मुहब्बत है ना किताबों को इनसे। इनका इंजीनियरिंग में घुसने का मुख्य उद्देश्य था अपने घर से दूर भागना जो पूरा हो चुका था इसलिए अब इनका पढना लिखना भी दो साल से लगभग बंद ही है।
वो तो दिमाग ऐसा पैना है बंदे का की कोई भी सेमेस्टर हो और कोई भी पेपर इनका रिकॉर्ड रहा है सिर्फ एक रात दिन की पढ़ाई में ही इन्होंने अपनी नैय्या तो पार लगाई ही है अपने आगे पीछे आजु बाजू वालों को भी वैतरणी पार कराई है।
इसलिए भाई साहब का नाम चल गया है, लेकिन सिर्फ इनकीं ब्रांच में। यहाँ तक कि इनकी ब्रांच के बाहर भी लोग इन्हें ज्यादा नही जानते पहचानते।
पर फिर भी ये अपने चेलों यानी दोस्तों को जमा कर जब तब ज्ञान देते ही रहतें हैं।
कॉलेज का नया नया सत्र शुरू ही हुआ है और अभी उसी पर कुछ ज्ञान गंगा बह रही थी कि बिल्कुल किसी आंधी सी वो आयी और तूफान सी लौट गई…
और अभिमन्यु मिश्रा बस उसे देखते ही रह गए..
” अबे थी कौन ये?”
आंधी सी आने वाली का नाम था रंगोली…..
रंगोली तिवारी !! ये मेडिकल प्रथम वर्ष की छात्रा हैं। दिखने में नाजुक सी खूबसूरत सी रंगोली का कॉलेज का पहला दिन बहुत बुरा बीता।
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बारहवीं के बाद मेडिकल सेलेक्शन लिस्ट में उसका नाम नदारद था । तो वैसे ही उसने रो रोकर घर सर पर उठा लिया था कि ठीक अगले दिन एक और नई लिस्ट आयी जिसमें वेटिंग लिस्ट वालों के नाम थे और यहाँ सातवें नम्बर पर रंगोली तिवारी का नाम और अनुक्रमांक मिल गया।
बस घर वालों की खुशी का ठिकाना नही रहा लेकिन रंगोली को हर काम जब तक पूरा न हो जाये विश्वास नही होता था।
उसने कितनी मेहनत की थी ये वही जानती थी। रात दिन एक कर उसने पढ़ाई की थी। किताबों को ऐसे रट घोंट लिया था कि उसे सपने भी एग्जाम हॉल और पेपर के ही आते थे।
तैयारी बहुत अच्छी होने के बावजूद वो पेपर बनाते समय एंजाइटी की शिकार हो गयी और अच्छा खासा बनता पेपर थोड़ा सा बिगाड़ आयी।
पेपर्स के बाद उसका पूरे एक हफ्ते का शोक चला जिसमें अपनी खिड़की पर खड़ी वो बाहर लगी रातरानी की बेल सूंघती अपने लैपटॉप पर आबिदा परवीन की गज़लें सुन सुन कर रोने की कोशिश में लगी रहती।
लेकिन ज़िन्दगी कब तक उदास बैठेगी। रंगोली की मीठी सी कमज़ोरी आइसक्रीम को उसकी माँ ने औजार बना कर उपयोग किया और दुखियारी के सामने चार दिन बाद उसकी पसंदीदा आइसक्रीम पेश कर दी।
रंगोली की पसंदीदा नॉवेल उसके हाथ में देकर मम्मी ने अपने हाथो से उसे आइसक्रीम खिलाई और बस रंगोली अपना गम भूल गयी।
मम्मी ने एक अच्छा सा ऑप्शन भी रख दिया..” बेटा अगर इस साल सेलेक्शन नही भी हुआ तो कोई नही। ड्राप लेकर अगले साल कर लेना तैयारी। मुझे पूरा विश्वास है मेरी बेटी अव्वल दर्जे की डॉक्टर बनेगी। चाहे कितना भी समय ले लेना बेटा पर हिम्मत नही हारना। “
रंगोली माँ के सीने से लग गयी। उसके कमरे के बाहर खड़े उसके पापा उसके चेहरे की खोई मुस्कान वापस पा कर खिल उठे।
दो महीने बाद रिज़ल्ट आया और वेटिंग लिस्ट में ही सही रंगोली का सेलेक्शन हो गया।
परिणामों के दो हफ्ते बाद ही एक शाम जब पूरा परिवार साथ बैठे चाय की चुस्कियों के साथ गप्पे मारने में लगा था कि रंगोली के पिता जी के मोबाइल पर किसी अनजान नम्बर से फोन आया…
” तिवारी जी बोल रहे है .?
” जी हाँ ! कहिये कौन काम है हमसे ?”
” आपकी बिटिया का सलेक्सन नही हुआ महाराज ?”
” तो तुमको इससे क्या लेना देना भाई? “
” लेना देना है ना तिवारी जी। आपकी बिटिया आई है वेटिंग में सातवें स्थान पर। अब मान लीजिए छै तक आकर सेलेक्सन रुक गया तो क्या करेंगे। का बिटिया का एक साल फिर बर्बाद कर देंगे।
“तुम हो कौन और कहना क्या चाहते हो? “
” नाम में हमारे कोई खास बात नही जो हम बताएं। पर जो बताने जा रहे वो बहुत खास है। आप पांच लाख तैयार रखियेगा हम नार्मल सीट से सेलेक्शन करवा देंगे।
” पगला गए हो क्या ? इत्ता पैसा देना होगा तो मैनेजमेंट सीट नही खरीद लेंगे। “
” पगला तो आप गयें हैं गुरु। मेडिकल की सीट वो भी मैनेजमेंट सीट! कम से कम तीस पैंतीस लाख लगेगा। घर द्वार बेच के बिटिया को पढ़ाएंगे का? और फिर रंगोली के पीछे एक और गुड़िया भी तो है ना मेहंदी। उसके लिए क्या बचाएंगे। पांच लाख बहुत सस्ता ऑफर दिए हैं हम। वो तो बिटिया आपकी होशियार है वरना हम किसी को सामने से होकर फ़ोन नही करते। जिसको सीट चाहिए वो खुद ही हमें ढूँढ़ लेता है। समझे? “
तिवारी जी ने खिसिया कर फोन पटक दिया। ठीक था वो घर से सम्पन्न थे , अच्छी नौकरी में थे। पर थे तो मध्यम वर्गीय ही। तीस लाख तो पूरी उम्र कमाई कर जोड़ लेंगे तब भी शायद ही जोड़ पाएं। और फिर रंगोली के पीछे ही मेहंदी भी थी। वो गणित लिए तैयार खड़ी थी।
इस साल रंगोली का किसी अच्छे कॉलेज मे सेलेक्शन हो जाता तो दो साल बाद मेहंदी के लिए सोचना शुरू करना था उन्हें ।
वो सोच ही रहे थे कि रंगोली ने उनकी मुश्किल आसान कर दी…
” ड्राप ले लुंगी पापा। आप चिंता न करो। ऐसे किसी को पैसे क्यों दे हम। जाने कहाँ का फ्रॉड हो ये। “
बिटिया की समझदारी भरी बात पर पापा मुस्कुरा उठे लेकिन फ़ोन वाली बात उनके दिमाग से गयी नही।
कुछ दो दिनों के बाद ही काउंसिलिंग लेटर आ गया और घर की रौनक वापस आ गयी।
रंगोली अपने पिता के साथ काउंसिलिंग में आ गयी। एक से एक बड़े बड़े चिकित्सा महाविद्यालयो की भीड़ में उसे दो महाविद्यलयों में आखिरी की दो तीन बची सीट मिल रही थी।
सीट तो भाई शुरू की मिले या आखिरी की मेडिकल सीट मेडिकल सीट होती है।
रंगोली बुरहानपुर की सीट के लिए हां कहने वाली थी कि उसके सामने बैठे व्यक्ति के पीछे की स्क्रीन जिस पर सीट्स और कॉलेज दिखाए जा रहे थे में एक नए चिकित्सा महाविद्यालय का नाम सात खाली सीट्स के साथ नज़र आया ” रानी बाँसुरी अजातशत्रु सिंह चिकित्सा महाविद्यालय ” …
ये नाम देखते ही रंगोली ने सामने बैठे व्यक्ति के सामने टेबल पर अपने फॉर्म पर एकदम से हाथ रख दिया…
“वेट सर ! सर ये बाँसुरी मेडिकल कॉलेज कौन सा है? “
सामने बैठे व्यक्ति ने अपने एक किनारे रखे ब्रोशर को उठा कर उसके सामने कर दिया…
” मायानगरी विश्वविद्यालय का एक कॉलेज है। मायानगरी में भी बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की तर्ज़ पर एक ही कैम्पस में लगभग सारे कॉलेज खोल रखें हैं। अभी नया बना विश्विद्यालय है लेकिन रेप्युटेशन अच्छी हैं।।
यहाँ मेडिकल में सात सीट उपलब्ध है। “
” सर मुझे यही एडमिशन लेना है। “
” आर यू श्योर ? “
” डेफिनेटली सर ” मुस्कुरा कर रंगोली पीछे स्क्रीन पर चमकते नाम को देख मुस्कुरा उठी।
कौन सा मुझे एम्स या ए एफ एम सी मिल रहा था। बुरहानपुर की सीट से तो यही भला है। कम से कम कॉलेज का नाम तो सुंदर है।
रानी बाँसुरी अजातशत्रु सिंह मेडिकल कॉलेज। यानी मेडिकोज की भाषा में R B A S medical collage….
क्रमशः
aparna …….